अनोखी परंपरा: ‘लाल बंगला’ में सिर्फ महिलाएं, बाहरी छू लें तो रसोई तोड़ दी जाती है, रामायण से जुड़ी है परंपरा…

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अनोखी परंपरा: ‘लाल बंगला’ में सिर्फ महिलाएं, बाहरी छू लें तो रसोई तोड़ दी जाती है, रामायण से जुड़ी है परंपरा, जाने...

भारत की विविध जनजातियों में छत्तीसगढ़ की भुंजिया जनजाति एक विशेष स्थान रखती है। यह जनजाति आज भी अपनी सदियों पुरानी परंपराओं और मान्यताओं को पूरी निष्ठा के साथ निभा रही है। इनमें सबसे अनोखी परंपरा है – ‘लाल बंगला’, जो दरअसल इनकी रसोई होती है, लेकिन इसकी पवित्रता और नियम इतने सख्त हैं कि जानकर आप चौंक जाएंगे।

क्या है ‘लाल बंगला’?

भुंजिया जनजाति में रसोई को सामान्य किचन नहीं बल्कि ‘लाल बंगला’ कहा जाता है। यह घर के बाहर लाल मिट्टी से बनाया जाता है और इसकी देखरेख केवल महिलाएं ही करती हैं।

  • किसी भी पुरुष या बाहरी व्यक्ति का प्रवेश सख्त वर्जित है।

  • अगर कोई अनजाने में भी इसे छू लेता है, तो पूरी रसोई तोड़ दी जाती है और फिर से नई मिट्टी से बनाई जाती है।

महिलाएं ही करती हैं देखरेख, पीरियड्स के बाद ही मिलती है एंट्री

भुंजिया जनजाति में केवल वही लड़कियां ‘लाल बंगला’ में प्रवेश कर सकती हैं, जिनकी मासिक धर्म की शुरुआत हो चुकी हो।
इसके अलावा महिलाएं:

  • ब्लाउज और पेटीकोट नहीं पहनतीं, सिर्फ साड़ी ओढ़ती हैं।

  • नाक नहीं छिदवातीं, लेकिन कान छिदवाना परंपरा का हिस्सा है।

कैसे बनता है ‘लाल बंगला’? पुरुष रखते हैं व्रत

  • निर्माण से पहले पुरुष व्रत रखते हैं और फिर जंगल से लकड़ी और बांस लाकर ‘लाल बंगला’ बनाते हैं।

  • जंगल में लकड़ी काटने से पहले ‘प्रकृति देवी’ से क्षमा भी मांगी जाती है।

रामायण से जुड़ी है परंपरा की शुरुआत

इस परंपरा की जड़ें त्रेता युग से जुड़ी बताई जाती हैं। मान्यता है कि जिस क्षेत्र में भुंजिया जनजाति रहती है, वहीं भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता वनवास के दौरान ठहरे थे। रावण ने भोजन मांगने के बहाने माता सीता का हरण कर लिया, जिससे भुंजिया पुरुषों में डर बैठ गया कि कहीं उनकी पत्नियों के साथ भी ऐसा न हो जाए। तभी से महिलाएं रसोई को पवित्र स्थान मानने लगीं और पुरुषों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया।

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आज भी परंपराएं जीवित, आधुनिकता से दूर जीवन

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद और महासमुंद जिले के 25 से अधिक गांवों में रहने वाले लगभग 10 हजार भुंजिया आज भी अपने पारंपरिक जीवन को बचाकर रखे हुए हैं।
ये परंपराएं न केवल उनकी पहचान का प्रतीक हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि प्रकृति और धर्म के साथ उनका गहरा जुड़ाव आज भी बरकरार है।

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